भारतीय संस्कृति में भगवान शिव के अनेक रूपों की झाँकी मिलती है. कहीं वह निर्गुण ब्रह्म के रूप में दिखाये गये हैं तो कहीं सगुण रूप में. कभी वे रौद्र रूप धारण करते हुये दृष्टिगोचर होते हैं, तो कभी सौम्य रूप. वे एक ओर सृष्टि का संहार करते हैं तो दूसरी ओर सृष्टि का निर्माण. इसीप्रकार, कहीं उनका नटराज रूप दिखायी पड़ता है, तो कहीं अर्द्धनारीश्वर रूप. एक ही मूर्ति की बायीं ओर माता पार्वती और दाहिनी ओर भगवान शिव हों तो ऐसी अद्भुत मूर्ति अर्द्धनारीश्वर के नाम से जानी जाती है.
भारतीय मूर्तीकला में भी भगवान के अर्द्धनारीश्वर रूप के दर्शन होते हैं. शिल्पकारों ने बड़ी ही तल्लीनतापूर्वक अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा का निर्माण किया. भारतीय इतिहास में गुप्तकाल स्वर्णयुग के नाम से जाना जाता है. इसकाल में हर प्रकार की कला अपनी पराकाष्ठा पर थी, इसीलिये अर्द्धनारीश्वर की गुप्तकालीन उपलब्ध प्रतिमाएँ स्थापत्यकला की दृष्टि से बहुत उच्च कोटि की हैं. इन प्रतिमाओं में भगवान शिव के हाथों में दो वलय हैं, जबकि माता पार्वती के हाथ में केहुनी तक चूड़ियाँ भरी हुयी हैं. कण्ठाभरणों में एक ओर चपटा कण्ठा है, तो दूसरी ओर मणियों की माला. एक ओर माँ पार्वती की करधनी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है, तो दूसरी ओर भगवान शिव का कमरबन्द जिसे 'कायबन्धन' कहा जाता है. देवीमाँ के चरण में नूपुर है, परन्तु आदिदेव श्रीविश्वनाथ का चरण रिक्त है. महादेवि वस्त्रावृता हैं, जबकि महादेव दिगम्बर. शिवजी की लहराती हुयी जटायें और माता गौरी का संजोया हुआ केशपाश व जूड़े में गूँथी हुयी कमल की कली मूर्ति के सौन्दर्य में चार चाँद लगा देती है.
'मत्स्यपुराण' में लिखा है कि भगवान शिव के जटाभाग पर बालेन्दुकला होनी चाहिये. गुप्तकालीन अर्द्धनारीश्वर-प्रतिमा में ऐसा ही दिखाया गया है. शिवजी के कर्ण में नागकुण्डल के रूप में वासुकी होना चाहिये तथा देवीमाँ के कान में बाली. मथुरा की अर्द्धनारीश्वर-प्रतिमा में ऐसा ही दृष्य उपस्थित है. अर्द्धनारीश्वर-प्रतिमा का प्रधान उद्देश्य रहा है पुरुष व प्रकृति के एकत्व को सूचित करना, इसीलिये महाकवि कालिदास ने भी अपने अमर काव्य 'रघुवंश' का आरम्भ शिव-पार्वती की भक्ति में विभोर होकर दोनों की एकसाथ वन्दना करते हुये किया है- "वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।"
* लेखक : गौरीशंकर श्रीवास्तव " दिव्य "