विश्वजननि पराशक्ति श्रीदुर्गा से ही शब्द एवं सृष्टि की उत्पत्ति हुयी है. शक्ति ने जब स्फूर्ति रूप धारण किया तब परमतत्व भगवान शिव ने उसमें तेजरूप से प्रवेश किया और इसप्रकार बिन्दु का प्रादुर्भाव हुआ. इसीप्रकार, जब शिव में शक्ति का प्रवेश हुआ तब नारीतत्व या नादतत्व व्यक्त हुआ. इन्हीं दोनों तत्वों (नाद और बिन्दु) के मिलने से अर्द्धनारीश्वर रूप का प्रादुर्भाव हुआ. पुरुषत्व श्वेत एवं नारी-तत्व रक्त-वर्ण है. इन्हीं दोनों के सम्मिलन से कला की उत्पत्ति हुयी है. इस काम एवं कला तथा नाद व बिन्दु के योग से ही यह त्रिगुणात्मक सृष्टि उत्पन्न हुयी है. मूलतत्व शिव अनन्त एवं अव्यक्त हैं और सृष्टि के प्रत्येक विकास में उस शिवतत्व का आगम है. इस शिव की अजा आद्याशक्ति ही प्रकृति रूपा हैं. इस परम सत्ता को वेद भगवान ने पुरुष और स्त्री दोनों के ही रूपों में जाना. ऋग्वेद के 'नारदीय सूक्त' और 'पुरुष सूक्त' में चरम सत्ता का वर्णन 'पुरूष' रूप में लिखा गया है, किन्तु एक अन्य सूक्त में उस सत्ता का वर्णन 'स्त्री' के रूप में भी है. इसी सूक्त से ज्ञात होता है कि भगवती दुर्गा ने जगत्पिता को उत्पन्न किया है और समग्र भुवनों में प्रविष्ट होकर स्वर्ग व मर्त्यलोक के परे भी विद्यमान हैं.
पुराण साहित्य में शक्तितत्व का प्रतिपादन पूर्णत: नवीन नहीं है. वस्तुत: वह वैदिकी शक्ति-साधना का विकसित रूप है, जो यहाँ मौलिक सा आभासित होता है. मत्स्य पुराण, कालिका पुराण, देवी पुराण, देवी भागवत, मार्कण्डेय पुराण, आदि महापुराण और उपपुराणों में भगवती दुर्गा के माहात्म्य का वर्णन है, जबकि कालिका पुराण, देवी पुराण, मत्स्य पुराण तथा वृहन्नान्दिकेश्वर पुराण में दुर्गापूजा की पद्धति दी गयी है. वृहन्नान्दिकेश्वर पुराण वर्तमान में उपलब्ध न होने पर भी उसमें वर्णित दुर्गापूजा की पद्धति पायी जाती है. प्रचलित मत्स्य पुराण में दुर्गापूजा-पद्धति नहीं मिलती. मार्कण्डेय पुराण में पूजा-पद्धति न होने पर भी उसमें जो देवी महात्म्य या सप्तशति स्तवन है, उसका पाठ दुर्गापूजा में आवश्यक रूप से निर्दिष्ट है. काली विलास तंत्र में शारदीय दुर्गापूजा का विस्तार से वर्णन है.
अष्टादश पुराणों में मार्कण्डेय पुराण तथा देवी भागवत में बहुत ही विस्तृत रूप में शक्तितत्व का निरूपण हुआ है. ब्रह्मवैवर्त पुराण के कृष्ण जन्म-खण्ड में भी शक्ति तत्व का आभास मिलता है. मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य अथवा दुर्गा चरित में आद्याशक्ति भगवती महामाया को सभी देवताओं के शरीर से निकला हुआ तेज बताया गया है, जो एकस्थ होकर तीनों लोकों में व्याप्त हुआ एक दिव्य नारी रूप को प्राप्त करता है-
"अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्यालोकत्रयं त्विषा।।"
यही निखिल तेजोमयी नारी भगवती दुर्गा कहलायीं, जिनके आविर्भाव का वही प्रयोजन है जो गीता में भगवान के अवतार का प्रयोजन बताया गया है. जगदम्बा दुर्गा का यह आविर्भाव देवताओं की कार्यसिद्धि के निमित्त होता है. यथा-
"देवानां कार्यसिद्धयर्थमाविर्भवति सा यदा।"
मार्कण्डेय पुराण के वर्णन से स्पष्ट है कि एक ही महाशक्ति विभिन्न रूपों में अवतरित होकर नाना प्रकार की लीलाएँ किया करती हैं. महालक्ष्मी, महासरस्वती तथा महाकाली रूप में उसी परमात्मशक्ति का वर्णन देवी महात्म्य में किया गया है. वस्तुत: ब्रह्म की यह शक्ति ब्रह्म से सर्वथा अभिन्न है. इसी से ऋषि-मुनियों ने शक्तिमान परमात्मा को महाशक्ति के रूप में देखा.
देवीभागवत में आद्याशक्ति के विराट स्वरूप का बड़ा ही सुन्दर वर्णन है. गिरिराज हिमालय की प्रार्थना पर महाशक्ति ने अपना विराट स्वरूप देवताओं को दिखाया था. श्रीमद भागवत में पद्मकल्प का इतिहास संग्रहित है, जबकि देवी भागवत में सारस्वत कल्प का. प्रकृति-पुरुष के संयोग के बिना संसार नहीं चल सकता, सम्भवत: इसीलिये महर्षि वेदव्यास ने भागवत में पुरुष-तत्व का वर्णन कृष्णरूप में तथा देवी भागवत में प्रकृति-तत्व का वर्णन देवीरूप में किया है.
विविध पुराणों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भगवती उमा आर्य-कन्याओं की चिर-आराध्या रही हैं, इसीलिये विवाह के समय सीताजी गिरिजा-पूजन करने जाती हैं. इसीप्रकार, द्वापर युग में श्याम-प्रेयसी राधाजी सहित अन्य गोप-कन्याओं ने भी श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने की कामना से कालिन्दी नदी के तट पर बालू द्वारा माँ भगवती कात्यायनी की प्रतिमा का निर्माण कर पूजा-अर्चना की थी. वहीं दूसरी ओर, श्रीकृष्ण ने जब रुक्मिणी-हरण किया तब वह गिरिजा-पूजन करने ही गयी हुयी होती हैं. भागवत में इसका सुन्दर चित्र उपस्थित है.
एक ही महाशक्ति के विभिन्न स्वरूप हैं. इनमें छोटी- बड़ी की कल्पना करना अपराध सदृश है, ऐसा पुराणों ने उदघोषित किया है. अत:, जिसकी आस्था भगवती के जिसकिसी रूप के प्रति समर्पित हो, उसे उसमें ही देवी के समस्त रूपों की उपस्थिती स्वीकार कर आराधना करनी फलदायी सिद्ध होती है.
विश्व में राक्षसों के अत्याचार से पीड़ित समुदाय को मुक्ति दिलाने हेतु भगवती माँ दुर्गा का पृथ्वी पर आविर्भाव होता है. शुम्भ-निशुम्भ, महिषासुर आदि राक्षसों को पराजित करने में त्रिदेवों के भी असफल होने पर स्वयं जगदम्बा ने उन दानवों का संहार किया. यह संहार किसी जीव की बलि न होकर सूचक है मानव-मन के भीतर छुपे उन दुर्गुणों पर होने वाले विजय का, जो जाने-अंजाने हमें दिग्भ्रमित करते रहते हैं. हमारे मन के भीतर छुपे बैठे दैत्य हमें गलत दिशा की ओर उन्मुख न कर सकें इसके लिये हमें माता की छवि सर्वदा अपने मन-मस्तिष्क में विराजित रखनी चाहिये. उन ममतामयी माता की शरण निश्चित ही अपने भक्तों को मुक्ति दिलानेवाली और उन्हें सौभाग्यपथ पर अग्रसर करानेवाली होती है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं. अन्त में, हम भी देवताओं के सुर में सुर मिलाकर जगदम्बा से यही प्रार्थना करते हैं-
"देविप्रपन्नार्तिहरे प्रसीद, प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं, त्वमीश्वरी देवी चराचरस्य।।"