श्रीचित्रगुप्त पूजा-विधि
भगवान चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और जल है. कायस्थ कुल के अधिष्ठाता श्री चित्रगुप्त जी महाराज की लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलता है. कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है. इस दिन भगवान चित्रगुप्त की मूर्ति अथवा तस्वीर स्थापित कर श्रद्धापूर्वक फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर एवं विविध प्रकार के पकवान,मिष्ठान एवं नैवेद्य सहित इनकी पूजा की जाती है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति अपने समस्त अपराधों से निवृत्ति प्राप्त कर मृत्यु उपरान्त सद्गति का पात्र बनता है.
चित्रगुप्त पूजा-व्रत कथा
सौराष्ट्र में एक राजा हुए जिनका नाम सौदास था. पुण्य कर्म से विरक्त अधर्मी और पाप कर्म करने वाले राजा ने कभी कोई पुण्य कर्म नहीं किया था. एक बार शिकार खेलते समय जंगल में भटक जाने पर राजा को वहाँ चित्रगुप्त पूजा में लीन एक ब्राह्मण दिखा. राजा ने उत्सुकतावश ब्राह्मण के समीप जाकर पूछा कि आप यहाँ किनकी पूजा कर रहे हैं. ब्राह्मण ने कहा- "आज कार्तिक शुक्ल द्वितीया है. मैं प्रतिवर्ष इस दिन कायस्थ कुल के अधिष्ठाता श्री चित्रगुप्त जी महाराज की पूजा करता हूँ. जो व्यक्ति इनकी भक्तिपूर्वक आज की तिथि में उपासना करते हैं अवश्य ही उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है और वे नर्क की यातनाओं के भागी नहीं बनते हैं." यह सुनकर पापी राजा ने तब पूजा का विधान पूछकर वहीं चित्रगुप्त जी की बड़े ही भक्ति भावना से पूजा की.
काल की गति से एक दिन यमदूत राजा के प्राण लेने आ गये. दूत राजा की आत्मा को जंजीरों में बाँधकर घसीटते हुए ले गये. लहुलुहान राजा यमराज के दरबार में जब पहुँचा तब चित्रगुप्तजी ने राजा के कर्मों की पुस्तिका खोली और कहा कि "हे यमराज ! वैसे तो यह राजा बड़ा ही पापी है इसने सदा पाप-कर्म ही किए हैं परंतु इसने कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को बड़े ही भक्तिभाव से मेरा व्रत-पूजन किया है, अत: मेरे आशीर्वाद के फलस्वरूप इसके पाप क्षमा योग्य हैं और अब इसे धर्मानुसार नर्क नहीं भेजा जा सकता. इस प्रकार राजा को नर्क से मुक्ति मिल गयी और वे स्वर्ग के रास्ते अग्रसर हुये.
श्रीचित्रगुप्त चालीसा
कार्तिक शुक्ल दिनांक दो, श्रद्धा सौरभ मान,
अक्षर जीवी जनकरें, चित्रगुप्त का ध्यान ॥
ज्ञानी वीर गहीरमन, मंद मंद मुस्कान,
निर्णय लिखते कर्म का, चित्रगुप्त भगवान ||
ब्रह्मा पुत्र नमामि नमामि, चित्रगुप्त अक्षर कुल स्वामी ||
अक्षरदायक ज्ञान विमलकर, न्यायतुलापति नीर-छीर धर ||
हे विश्रामहीन जनदेवता, जन्म-मृत्यु के अधिनेवता ||
हे अंकुश सभ्यता सृष्टि के, धर्म नीति संगरक्षक गति के ||
चले आपसे यह जग सुंदर, है नैयायिक दृष्टि समंदर ||
हे संदेश मित्र दर्शन के, हे आदर्श परिश्रम वन के ||
हे यममित्र पुराण प्रतिष्ठित, हे विधिदाता जन-जन पूजित ||
हे महानकर्मा मन मौनम, चिंतनशील अशांति प्रशमनम ||
हे प्रातः प्राची नव दर्शन, अरुणपूर्व रक्तिम आवर्तन ||
हे कायस्थ प्रथम हो परिघन, विष्णु ह्रदय के रोमकुसुमघन ||
हे एकांग जनन श्रुति हंता, हे सर्वांग प्रभूत नियंता ||
ब्रह्म समाधि योगमाया से, तुम जन्मे पूरी काया से ||
लंबी भुजा साँवले रंग के, सुंदर और विचित्र अंग के ||
चक्राकृत गोला मुखमण्डल, नेत्र कमलवत ग्रीवा शंखल ||
अति तेजस्वी स्थिर द्रष्टा, पृथ्वी पर सेवाफल सृष्टा ||
तुम ही ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र हो, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शुद्र हो ||
चित्रित चारु सुवर्ण सिंहासन, बैठे किये सृष्टि पे शासन ||
कलम तथा करवाल हाथ मे, खड़िया स्याही लिए साथ में ||
कृत्याकृत्य विचारक जन हो, अर्पित भूषण और वसन हो ||
तीर्थ अनेक तोय अभिमंत्रित, दुर्वा-चंदन अर्घ्य सुगंधित ||
गम-गम कुमकुम रोली चंदन, हे कायस्थ सुगंधित अर्चन ||
पुष्प-प्रदीप धूप गुग्गुल से, जौ-तिल समिधा उत्तम कुल के ||
सेवा करूँ अनेको वर्षों, तुम्हें चढाँऊ पीली सरसों ||
बुक्का हल्दी नागवल्लि दल, दूध-दहि-घृत मधु पुंगिफल ||
ऋतुफल केसर और मिठाई, कलमदान नूतन रोशनाई ||
जलपूरित नव कलश सजा कर, भेरि शंख मृदंग बजाकर ||
जो कोई प्रभु तुमको पूजे, उसकी जय-जय घर-घर गुंजे ||
तुमने श्रम संदेश दिया है, सेवा का सम्मान किया है ||
श्रम से हो सकते हम देवता, ये बतलाये हो श्रमदेवता ||
तुमको पूजे सब मिल जाये, यह जग स्वर्ग सदृश खिल जाए ||
निंदा और घमंड निझाये, उत्तम वृत्ति-फसल लहराये ||
हे यथार्थ आदर्श प्रयोगी, ज्ञान-कर्म के अद्भुत योगी ||
मुझको नाथ शरण मे लीजे, और पथिक सत्पथ का कीजे ||
चित्रगुप्त कर्मठता दीजे , मुझको वचन बद्धता दीजे ||
कुंठित मन अज्ञान सतावे, स्वाद और सुखभोग रुलावे ||
आलस में उत्थान रुका है, साहस का अभियान रुका है ||
मैं बैठा किस्मत पे रोऊँ, जो पाया उसको भी खोऊँ ||
शब्द-शब्द का अर्थ माँगते, भू पर स्वर्ग तदर्थ माँगते ||
आशीर्वाद आपका चाहूँ , मैं चरणों की सेवा चाहूँ ||
सौ-सौ अर्चन सौ-सौ पूजन, सौ-सौ वंदन और निवेदन ||
बार बार वर माँगता, हाथ जोड़ श्रीमान |
प्राणी प्राणी देवता, धरती स्वर्ग समान ||
श्री चित्रगुप्त जी की आरती
ओम् जय चित्रगुप्त हरे, स्वामी जय चित्रगुप्त हरे।
भक्तजनों के इच्छित, फल को पूर्ण करे।।
विघ्न विनाशक मंगलकर्ता, संतन सुखदायी।
भक्तों के प्रतिपालक, त्रिभुवन यश छायी।। ओम् जय...।।
रूप चतुर्भुज, श्यामल मूरत, पीताम्बर राजै।
मातु इरावती दक्षिणा, वाम अंग साजै।। ओम् जय...।।
कष्ट निवारक, दुःख संहारक, प्रभु अंतर्यामी।
सृष्टि संम्हारन, जन दु:ख हारन, प्रकट भये स्वामी।। ओम् जय..।।
कलम, दवात, शंख, पत्रिका, कर में अति सोहै।
वैजयन्ती वनमाला, त्रिभुवन मन मोहै।। ओम् जय...।।
विश्व न्याय का कार्य सम्भाला, ब्रम्हा हर्षाये।
कोटि कोटि मनु देवता, चरणन में धाये।। ओम् जय...।।
नृप सौदास अरू भीष्म पितामह, याद तुम्हें कीन्हा।
वेग, विलम्ब न कीन्हौं, इच्छित फल दीन्हा।। ओम् जय...।।
दारा, सुत, भगिनी, सब स्वारथ के कर्ता।
जाऊँ शरण में किसकी, तुम तज मैं भर्ता।। ओम् जय...।।
बन्धु, पिता तुम स्वामी, शरण गहूँ किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी।। ओम् जय...।।
जो जन चित्रगुप्त जी की आरती, प्रेम सहित गावैं।
चौरासी से निश्चित छूटैं, इच्छित फल पावैं।। ओम् जय...।।
न्यायाधीश बैंकुंठ निवासी, पाप पुण्य लिखते।
'नानक' शरण तिहारे, आस न दूजी करते।। ओम् जय...।।
कथा-शब्द सामग्री स्रोत : लोक प्रचलित