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श्रीराम का परब्रह्मत्व

भारतीय संस्कृति में अवतारवाद का विशेष महत्व है. यद्यपि विश्व की अन्य संस्कृतियाँ पीर-पैगम्बर एवं ईश्वर की संतान आदि के रूप में अपने आराध्य का चिन्तन करती हैं, तथापि भारतीय संस्कृति के अनुसार जब-जब पृथ्वी आसुरी शक्तियों से त्रस्त हो ऊठती है तब-तब परब्रह्म परात्पर सर्वाधार परमात्मा स्वयं भक्तों के कल्याण व असुरों का दमन करने हेतु इस धरा पर अवतरित होते हैं.
अवतारवाद की इस श्रृंखला में श्रीराम और श्रीकृष्ण का नाम सर्वोपरि तथा श्रद्धा के साथ लिया जाता है.
जिसप्रकार 'श्रीमद् भागवत' में श्रीकृष्ण को 'कृष्णस्तु भगवान स्वयं' कहा गया है, उसीप्रकार 'महा-रामायण' में श्रीराम को 'रामस्तु भगवान स्वयं' कहा गया है। यथा-
'भरण: पोषणधार: शरण्य: सर्वव्यापका।
करुण: निर्मलगुणै पूर्णा रामस्तु भगवान स्वयं।।'
अधिकतर विद्वतजन श्रीकृष्ण को 16 और श्रीराम को 12 कलाओं से युक्त बताते हैं. चूँकि सूर्य 12 कलाओं का अधिपति ग्रह होता है और श्रीराम सूर्यवंशी थे, जबकि चंद्रमा की 16 कलायें मानी गयी हैं और श्रीकृष्ण चंद्रवंशी थे, अत: विद्वानों ने इसी को आधार बनाकर अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किये हैं. इसके विपरीत, गोस्वामी तुलसीदासजी ने 'गीतावली' में सभी तर्कों से ऊपर उठकर अपने प्रभु श्रीराम को 16 कलाओं से युक्त, साथ ही अग्नि-सूर्य और चंद्रमा का हेतु माना है-
'बन्दउं राम नाम रघुबर को, हेतु कृतानु-भानु-हिमकर की।'
'राम'- यह नाम स्वयं इस बात को सिद्ध कर देता है. 'राम' शब्द निर्मित है तीन अक्षरों- र +आ +म से. इसमें आनेवाला 'रकार्' अग्नि का बीज है, जिसका गुण है अशुभ कर्मों को भस्म कर देना, इस 'रकार्' से सम्बद्ध 'आ' सूर्य का बीज है, जिसके द्वारा मोह रूपी अन्धकार नष्ट हो जाते हैं. अगला अक्षर है- 'म' अर्थात चंद्र-बीज, जो तीनों प्रकार के संतापों को मिटाकर संतोष व शान्ति रूपी शीतलता प्रदान करता है.
  गोस्वामीजी द्वारा श्रीराम को 16 कलाओं से युक्त मानने का एक रहस्य स्वत: ही उद्घाटित हो जायेगा, यदि हम 'राम' नाम में आने वाले अक्षरों के स्वामी अग्नि-सूर्य और चंद्र तीनों की समस्त संख्याओं का आपस में योग कर दें -
3 (अग्नि) + 12 (सूर्य) + 1 (चन्द्रमा) = 16
यह योगफल सिद्ध करता है कि गोस्वामीजी द्वारा श्रीराम को 16 कलाओं से युक्त मानना ​​कदापि अतार्किक नहीं था.
  इसप्रकार, 'राम' नाम के चिन्तन करने मात्र से ही व्यक्ति अशुभ कर्मों से निवृत्त होकर मोह रूपी अन्धकार से बाहर निकलते हुये, संतोष व शान्ति के अथाह सागर को पलक झपकते प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है.
  'राम' नाम ओंकार स्वरूप है. ग्रन्थ कहते हैं- 
'रामनाम्न: समुत्पन्न: प्रणवो मोक्षदायक:।'
अर्थात् मोक्ष का दाता जो ओंकार है, वह रामनाम से उत्पन्न है.
'अंकब्रह्म मीमांसा'  के अनुसार विद्वानों ने सीता और राम को पूर्ण-परात्पर ब्रह्म सिद्ध किया है. 'अंकब्रह्म-मीमांसा' 108 के अंक को पूर्ण-ब्रह्म का स्वरूप मानते हैं. यदि सीता और राम में सम्मिलित समस्त स्वर और व्यंजन का योग करें, तो उनका सम्पूर्ण योगफल 108 आता है. यथा- 'सीता' शब्द बना है 'स+ई+त+आ' अक्षरों के योग से. इसमें, 'स' है 32वाँ व्यंजन, 'ई' है चौथा स्वर, 'त' है 16वाँ व्यंजन और 'आ' है दूसरा स्वर. जिनका सम्पूर्ण योग हुआ- 32+4+16+2 = 54.
  इसीप्रकार, 'राम' शब्द में 'र+आ+म' अक्षर आते हैं. इसमें 'र' है 27वाँ व्यंजन, 'आ' है दूसरा स्वर तथा 'म' है 25वाँ व्यंजन. जिनका सम्पूर्ण योग हुआ- 27+2+25 = 54.
अब 'सीता-राम' दोनों नामों के सम्पूर्ण योगों को जोड़ते हैं- 54+54 = 108.
  इसप्रकार, 'सीता-राम' दोनों की अभिन्नता और परब्रह्मत्व सिद्ध होता है. सीता के बिना राम और राम के बिना सीता अधूरे हैं, यह बात भी उनके नामों के योगफल से सिद्ध है. यदि सीता न होतीं तो राम भी भगवान न कहे जाते और यदि राम न होते तो सीता भी सती-शिरोमणि देवी सीता बनकर समाज में शायद ही पूजित हो पातीं, इस योगफल का चमत्कार यह प्रदर्शित करता है. यही कारण है कि कभी-कभी पुरोहितजन संस्कृत भाषा में 'सीतारामाभ्याम् नम:' के स्थान पर 'सीतारामाय नम:' का उच्चारण भी करते हैं. यद्यपि संस्कृत में व्याकरण की दृष्टि से द्विवचन होने के कारण पहले वाला रूप सही है, परन्तु सीता-राम को एक ही शक्ति के दो प्रतिबिम्ब माननेवाले एकवचन का प्रयोग करते हैं, जो कि व्याकरण की दृष्टि से भले ही न सही किन्तु भक्ति की दृष्टि से पूर्णत: उचित है.
  यही दोनों सौम्य-मूर्ति मिलकर इस सृष्टि की रचना करते हैं. इन्हीं दोनों से सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है- 'सीयराममय सब जग जानी।'  
यही दोनों सांख्य के प्रकृति-पुरुष, वेदान्त के माया-ब्रह्म, तंत्र के शक्ति-शिव और वैष्णवों के श्री-विष्णु अर्थात् 'लक्ष्मी-नारायण' हैं. इनका अटूट नाता जन-जन को मुक्ति के मार्ग पर ले जाकर उन्हें सुख व शान्ति का वरदान प्रदान करता है. प्रकृति के कण-कण में समाहित इन सीतापति श्रीराम को जो कोई ब्रह्म मानने से इन्कार करता है या परम-शक्ति से भिन्न समझता है, उसके लिये तुलसीदासजी स्पष्ट लिखते हैं-
"कहहिं सुनहिं अस अधम नर, असे जो मोह पिसाच।
पाखण्डी हरि-पद विमुख, जानहि झूठ न साँच।।  
अग्य कोविद अन्ध अभागी, काई विषय मुकुर मन लागी।
लम्पट कपटी कुटिल बिसेखी, सपनेहुँ सन्त सभा नहिं देखी।।
कहहिं ते बेद असम्मत बानी,
जिनके सूझ लाभु नहिं हानी।
मुकुर मलिन अरु नयन विहीना,
राम रूप देखहिं किमी दीना।।"
'श्रीरामचरित मानस' के एक प्रसंग में ये वचन देवाधिदेव भगवान शंकर माता पार्वती से श्रीराम के वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुये कहते हैं. इसी प्रसंग में भोलेनाथ आगे कहते हैं-
'राम ब्रह्म व्यापक जग जाना।
परमानन्द परेस पुराना।।"
मोक्षदायक श्रीराम की स्तुति में प्रभु का उल्टा नाम जपकर ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त करने वाले ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ने महापातक नाशक श्रीरामनाम की महिमा का गान करते हुये लिखा है-
'चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातक नाशनम्।।"
श्रीराम की महिमा अवर्णनीय है. यदि 'अगस्त्य संहिता' में उन्हें सभी अवतारों का मूल बताया गया है, तो 'वृहदमहासंहिता' में 'साकेत लोक' का अधिपति तथा त्रिदेवों सहित समस्त देवी-देवताओं व उनके अवतारों से पूजित. 'वाराह संहिता' में श्रीहरि को 'रामांश' की संज्ञा दी गयी है-
'नारायणोऽपि रामांश: शंखचक्रगदाधर:।"
आनन्दसंहिता, सुन्दरीतंत्र, रामोपनिषद्, हनुमतसंहिता, हनुमदुपनिषद् तथा पराशर मुनि रचित ज्योतिष के परम प्रामाणिक ग्रन्थ 'वृहदपाराशर-होराशास्त्र' भी रघुनन्दन श्रीराम को समस्त अवतारों में सर्वश्रेष्ठ कहकर सम्बोधित करते है.
  श्रीराम के संदर्भ में इससे अधिक सुन्दर वर्णन कोई और क्या कर सकता है, जैसा गोस्वामी तुलसीदासजी ने वर्णित किया है-
'हरिहि हरिता, विधिहि विधिता, सिवहि सिवता जिन दई।
सोई जानकीपति मधुर मूरति, मोदमय मंगलमई।।
जाके बल बिरञ्चि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा।।"
तथा,
'सम्भु बिरञ्चि विष्णु भगवाना।
उपजहि जासु अंस ते नाना।। '
आज के तत्कालीन समाज में जब प्रत्येक व्यक्ति अपनी पहचान और पद की गरिमा प्राप्त करने के लिये प्रतिपल संघर्षरत है, श्रीराम की शरण और उनके आदर्शों के अनुसरण से निश्चित ही विजय के द्वार खुल सकते हैं. अन्त में, गोस्वामीजी के शब्दों में आइये मिलकर वन्दना करें-
'गिरा अरथ जल बीचि सम, कहिअत भिन्न न भिन्न।
बन्दउं सीताराम पद, जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।।'

बोलो सियावर रामचन्द्र की जय !!

लेखक: गौरीशंकर श्रीवास्तव "दिव्य"
संशोधनकर्ता: आशुतोष श्रीवास्तव
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