'श्रीराम चरित मानस' में गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- 'राम तें अधिक राम कर दासा।' यह बात पवनपुत्र श्रीहनुमानजी पर पूर्णतया चरितार्थ होती है. विचार करें तो परम ब्रह्म श्रीराम से भी अधिक उनके लाडले सेवक श्रीहनुमानजी की आराधना होती है. क्योंकि, पवनपुत्र में आस्था रखनेवाले तो मिलते ही हैं, श्रीराम के परम उपासक जो अपने आराध्य की कृपादृष्टि पाना चाहते हैं वे भी सर्वप्रथम केसरीनन्दन के ही चरणों में शीश नवाते हैं. स्वयं गोस्वामीजी का जीवन-चरित इस बात का एक बड़ा उदाहरण है.
सद्गुणों के भण्डार, अतुलित बलशाली, बाल-ब्रह्मचारी, संगीत विशारद, ज्ञानियों में अग्रगण्य, दैवीय गुणों के भण्डार, भगवान श्रीराम के परमप्रिय श्रीबजरंगबली शास्त्रों में वर्णित आठ चिरंजीवियों में प्रमुख व कलियुग के प्रधान देवता के रूप में श्रीरामकथा के प्रचारक बनकर आज भी अजर और अमर हैं. उन्हें माता सीता का आशीर्वाद प्राप्त है-
'अजर-अमर गुननिधि सुत होहू।
करहि बहुत रघुनायक छोहु।।'
ऐसे भक्तराज हनुमानजी की जयंती वर्ष में दो बार मनाने की परम्परा वर्षों से चली आ रही है. कल्प-भेद की मान्यताओं के अनुसार एक कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को और दूसरी चैत्र-पूर्णिमा को. यद्यपि श्रीहनुमानजी के परम पावन चरित से सम्पूर्ण धार्मिक जनता अवगत है, परन्तु यदि यह पूछा जाये कि वह किसके पुत्र हैं तो इसका उत्तर बताना सरल नहीं है. कहीं उन्हें शंकर सुवन कहा गया है, तो कहीं केशरी नन्दन या फिर कहीं पवनपुत्र. 'हनुमान चालीसा' में एक ही पंक्ति में दोनों सम्बोधन मिलते है. यथा-
'संकर सुवन केसरी नन्दन, तेज प्रताप महा जग बंदन।'
इसी 'हनुमान चालीसा' में उन्हें पवनपुत्र भी कहा गया है-
'पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरति रूप।'
पुत्र रूप में श्रीहनुमानजी के परिचय की यह विलक्षणता सचमुच बहुत ही तात्विक रहस्य लिये हुये है. गोस्वामीजी ने अपने मानस में चार घाटों की कल्पना की है- ज्ञान, भक्ति, कर्म और शरणागति. इन्हीं चारों के परिप्रेक्ष्य में श्रीहनुमानजी के लिये ये सम्बोधन किये गये हैं. ज्ञानघाट के आचार्य हैं भगवान शंकर. मानस में उन्हें विश्वास का मूर्तिमान स्वरूप बताया गया है-
'भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ।'
भक्ति का आधार है विश्वास. भोलेनाथ के एकादश रुद्र के रूप में माता अंजना के गर्भ से जन्में हनुमानजी जहाँ कहीं भी विश्वास की समस्या आती है उसका समाधान करते हैं. श्रीरामकथा के एक प्रसंग में माता सीता की खोज में वन-वन भटकते श्रीराम-लक्ष्मण को अपने भवन के समीप आते देख वानरराज सुग्रीव की इस शंका, कि कहीं इन वीर पुरुषों को मेरे भ्राता बाली ने तो नहीं भेजा है मेरा वध करने के लिये, का समाधान भी तभी सम्भव हो पाता है जब अपनी बुद्धिचातुरी से हनुमानजी सत्य का पता लगाने हेतु विश्वासपात्र की भूमिका निभाते हैं. जिस सुग्रीव के भाग्य ने पत्नी, राजपाट, धन-सम्पत्ति सभी कुछ उनका छीन लिया, उन्होंने हनुमानजी पर अपना यह विश्वास सदा बनाये रखा कि यह मंगलमूर्ति ही उनके एकमात्र संकटमोचन हैं. इसी विश्वास का परिणाम था कि भाग्य ने उनका जो कुछ उनसे छीना था, वह सभी कुछ उन्होंने पुन: प्राप्त कर लिया.
माता सीता की खोज से लेकर संजीवनी बूटी लाने तक या फिर लंका विजय से लेकर कुरुक्षेत्र में वीर अर्जुन के रथ की ध्वजा लहराते रहने तक समस्त घटनाक्रम विश्वास के बलबूते अन्याय पर न्याय की विजय का चित्र उपस्थित करते हैं. वर्तमान में भी भक्तों का अपने भगवान के प्रति विश्वास ही उन्हें विपरीत परिस्थितियों से जूझने की शक्ति प्रदान करता है. जिनके नामोच्चारण मात्र से भय दूर हो जाते हैं, विश्वास की ऐसी प्रतिमूर्ति शंकर सुवन बन इस जगत में पूजित हैं.
बिना विश्वास के भक्ति नहीं और भक्ति बिना भगवान नहीं. विश्वास रूपी हनुमानजी के आशीष से भक्ति स्वरूपा माता सीता के प्रति श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति श्रीराम अर्थात परम सुख-शान्ति को प्राप्त न कर सके ऐसा हो ही नहीं सकता. भक्त और भगवान के बीच दूरी उत्पन्न करती है - माया. प्रभु ने अपनी लीला द्वारा जगत को यह संदेश प्रेषित किया है. माया से कंचनमृग बने मारीच का प्रसंग इसी संदेश का वाहक है. जिसप्रकार मायावी मृग के शिकार की लालसा सीता और राम को पृथक कर देती है, ठीक उसीप्रकार साधारण मनुष्य प्रतिदिन एक नये मोह के चलते अपने कर्मों का रथ मोक्षद्वार की ओर ले जाने की बजाये सांसारिक कुचक्रों में फँसाये रहते हैं.
श्रीराम को भगवान न मानने वाले अक्सर पूछते हैं कि यदि वह भगवान थे, तो फिर उन्हें मायावी मृग के वास्तविक रूप का पता क्यों नहीं चल सका? क्यों उन्हें साधारण मनुष्यों की भाँति पत्नी वियोग के दंश झेलने पड़े? जवाब है, जो केवल अपने हित के बारे में सोचे वह भगवान की पद्वी को कैसे धारण कर सकता है? निश्चित ही प्रभु चाहते तो मारीच की उस माया का तत्काल अन्त कर सकते थे, किन्तु ऐसा न कर उन्होंने माया के वशीभूत होने के परिणाम कितने भयावह सिद्ध हो सकते हैं समाज को यह शिक्षा देनी चाही, जिस हेतु यह लीला करनी आवश्यक थी. प्रभु की इस लीला में सहायिका बनकर माता सीता ने भी श्रीराम की आवाज में छली मारीच द्वारा 'हा लक्ष्मण!' पुकारने पर लक्ष्मणजी को रघुवर की सहायता करने के लिये वन में जाने का आदेश दिया. माँ की यह लीला बताती है कि अपने वीर पति के बल पर संदेह करने वाली स्त्री किसप्रकार अनायास सुखों से वंचित हो सकती है.
दूसरी ओर यही माँ सीता अशोक वाटिका में पति की विरह व्यथा से व्याकुल होकर अशोक वृक्ष से अपने दु: ख बाँटती हैं. एक जड़ को अपने दु: ख सुनाना उनके इस विश्वास की ओर इशारा करता है कि क्या पता कब यह वृक्ष किसी माध्यम से उनकी चिन्ताओं का अन्त कर दे. उनका यह विश्वास उन्हें धोखा नहीं देता. श्रीहनुमानजी समुद्र लाँघकर लंका पहुंचते हैं और इसी अशोक वृक्ष की डालियों पर बैठकर श्रीराम नाम अंकित प्रभु की मुद्रिका माता के सम्मुख गिराते हैं व श्रीराम कथा का पवित्र पावन गान और राम-सुग्रीव मिलन के घटनाक्रम सुनाकर देवी सीता के मन में अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करते हैं. बजरंगबली के ओजस्वी वचन सुन जनक नन्दिनी के मन में श्रीराम की शक्ति पर जो अविश्वास पंचवटी में उत्पन्न हुआ था, पूर्ण रूप से मिट जाता है. जिसके बाद, एक ऐतिहासिक युद्ध में त्रिलोक विजयी रावण पर महान विजय प्राप्त कर राम और रमा का पुनर्मिलन होता है. यह असम्भव कार्य तभी सम्भव हो सका, जब हनुमान नामक विश्वास रणक्षेत्र में सदा साथ-साथ था. समस्त आशाओं पर खरा उतरते हुये शंकरसुवन सिद्ध करते हैं कि उनका यह नाम कितना सार्थक है.
पवन तनय के रूप में श्रीहनुमानजी का परिचय तब मिलता है, जब सुग्रीव उन्हें श्रीराम-लक्ष्मण की जानकारी लेने के लिये भेजते हैं. यहाँ एक ज्ञानी ब्राह्मण का वेष धारण कर वह पवनसुत के रूप में कर्मयोग की शिक्षा देते हैं. कर्मयोग का रहस्य यही है कि व्यक्ति कर्म करे और कर्ता दिखायी न दे. जिसप्रकार पवन सबको जीवन देता है, परन्तु स्वयं अदृश्य रहता है, श्रीहनुमानजी पवनपुत्र के रूप में अपने को छिपाये रखते हैं. जब श्रीराम कहते हैं-
'आपन चरित कहा हम गाई। कहहु विप्र निज कथा सुनाई।। '
तब हनुमानजी अपने विषय में बतलाते हैं-
'एक मंद मैं मोहबस कुटिल हृदय अज्ञान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारे दीनबन्धु भगवान।।'
हनुमानजी की बात सुनकर प्रभु मुस्कुराते हुये कहते हैं- 'हनुमान! संसार में एक ऐसी भी वस्तु है जिसके साथ 'मंद' शब्द जोड़ दिया जाये तो उसका महत्व अत्यधिक बढ़ जाता है. वह है, 'पवन'.
सीतल मंद सुरभि बह बाउ। हरषित सुर संतन मन चाउ।।
अत :, तुमने अपने को मंद कहकर सुस्पष्ट कर दिया कि तुम पवनपुत्र हो. सच्चे अर्थों में कर्मयोगी हो.'
संसार में जन्म लेने वाला प्राणि सर्वप्रथम अपने सांसारिक पिता के नाम से जाना और पहचाना जाता है, अत: कपिश्रेष्ठ वानरराज केशरी का पुत्र होने के कारण श्रीहनुमानजी का नाम केसरीनन्दन स्वत: ही विख्यात हो गया. विभीषणजी से भेंट होने के समय बजरंगबली उन्हें अपना यही परिचय देते हैं.
रामकथा के विविध प्रसंगों में सीतारामजी ने भी केसरीनन्दन को पुत्र कहकर अपना स्नेह प्रकट किया है. यथा, माता सीता की कही वाणी-
'सुनु सुत करहिं विपिन रखवारी।'
तथा, भक्तवत्सल श्रीराम द्वारा बोला गया वाक्य-
'सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।'
इसप्रकार, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी और कर्मयोगी के रूप में अपना परिचय देने के बाद श्रीबजरंगबली अंत में शरणागति का आश्रय लेकर अपने आराध्य के पुत्र बन जाते हैं. जिसके पश्चात, शंकर सुवन, केशरी नन्दन, पवनपुत्र और अयोध्यापति के पुत्र के रूप में श्रीहनुमानजी के पुत्रत्व का रहस्य प्रकट हो जाता है.
लेखक: गौरीशंकर श्रीवास्तव "दिव्य"
संशोधनकर्ता: आशुतोष श्रीवास्तव