"विजयादशमी" भारत का प्रमुख राष्ट्रीय-सांस्कृतिक पर्व है। यह राक्षसराज रावण पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम की विजय के प्रतीक के रूप में प्रतिवर्ष आश्विन शुक्ल दशमी के दिन हर्षोल्लास सहित भारत के कोने-कोने में मनाया जाता है। आसुरी-शक्तियों पर दैवी-शक्तियों की विजय का यह पर्व हमें दुर्गुणों को त्याग सद्गुणों को ग्रहण करने की प्रेरणा देता है। रावण का वध करने से पूर्व श्रीराम द्वारा नौ दिनों तक माँ जगदम्बा के नौ स्वरूपों की आराधना करने के पश्चात् इस पर्व के साथ "नवरात्रि" अर्थात "दुर्गापूजा" का अभिन्न सम्बंध जुड़ गया। माँ दुर्गा यानी शक्ति की अधिष्ठात्री देवी, जिनके आशीर्वाद के बिना किसी भी मानसिक-शारीरिक, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष युद्ध में विजय प्राप्त कर पाना असम्भव है। इस पूजा के माध्यम से भगवान ने स्त्री की महत्ता को सिद्ध करते हुये उसे समाज में प्रथम स्थान प्रदान किया तथा उसे शक्ति का स्वरुप बताया।
गोस्वामी तुलसीदास रचित "श्रीराम चरित मानस" नानापुराण निगमागम सम्मत है। अतः, उसमे जिस सिद्धांत या तत्व का प्रतिपादन किया गया है, उसका कोई न कोई आधार अवश्य है। उनके राम पूर्ण-परात्पर परिपूर्णतम ब्रह्म हैं। ऐसे परिपूर्णतम ब्रह्म के चरणों में शरणागति समस्त पापों से मुक्ति प्रदान कर मोक्ष दिलाने वाली होती है। आइये गोस्वामीजी की प्रेरणा से हम सभी "विजयादशमी" के इस शुभ अवसर पर यह संकल्प लें कि जिसप्रकार भगवान् श्रीराम ने रावण का वध कर पृथ्वी को आसुरी-शक्तियों से विहीन किया था, हम भी अपने भीतर छुपे रावण को मार गिरायेंगे और नीव डालेंगे वास्तविक रूप से सुन्दर लगने वाले एक ऐसे सभ्य-शिक्षित और निरोगी समाज की जो रामराज्य की संज्ञा प्राप्त कर सके।
................नमामि रामं रघुवंशनाथम ]
दोहा :
अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस।।
छंद :
जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम।।
धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदण्ड प्रबल प्रताप।। 1 ।।
जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि।।
यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल सनाथ।। 2 ।।
जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार।।
जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल।। 3 ।।
लंकेस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गंधर्ब।।
मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पंथ सब कें लाग।। 4 ।।
परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट।।
अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल।। 5 ।।
मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान।।
अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुख पुंज।। 6 ।।
कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव।।
मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप।। 7 ।।
बैदेहि अनुज समेत। मम हृदय करहु निकेत।।
मोहि जानिऐ निज दास। दे भक्ति रमानिवास।। 8 ।।
छंद :
दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं।।
सुर बृंद रंजन द्वन्द भंजन मनुज तनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं।।
दोहा :
अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौ सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल।।