"श्रीमदभागवत" के दशम स्कंध में 29 वें अध्याय से 33 वें अध्याय तक रासेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण की रासलीला का वर्णन किया गया है. "भागवत" के ये पाँच अध्याय "रासपंचाध्यायी" के नाम से विख्यात हैं. ये पाँच अध्याय उसके प्राण माने जाते हैं. "भागवत" वर्णित भगवान् की यह रासलीला शरद पूर्णिमा की धवल चाँदनी में रासेश्वरी श्रीराधाजी तथा गोपिकाओं के साथ सम्पन्न हुयी थी.
"भागवत" उल्लिखित इस रासलीला का एक रूपांतर हमें महाकवि जयदेव के "गीत गोविन्द" में भी उपलब्ध होता है, जो वसंत काल में हुआ था. सूरदास आदि परवर्ती भक्त-कवियों की रचनाओं में उपर्युक्त दोनों परम्परायें एक दूसरे में गुंथकर एक हो गयी हैं. "रास" शब्द का मूल रस है और रस स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं. यथा- "रसो वै सः ". जिस दिव्य क्रीड़ा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में होकर अनन्त-अनन्त रस का समास्वादन करें, एक रस ही रससमूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वादन-आस्वादक, लीलाधाम और विभिन्न आलम्बन एवं उद्दीपन रूप में क्रीड़ा करे- उसका नाम "रास" है.
बंगीय वैष्णवों के कथनानुसार जिसप्रकार केंद्र में स्थित सूर्य के चारों ओर समस्त ग्रह-उपग्रह चक्कर लगा रहे हैं तथा सूर्य की आकर्षण-शक्ति इन्हें परस्पर सम्बद्ध रखकर गिरने नहीं देती, उसीप्रकार रासलीला में केन्द्रस्थ श्रीकृष्ण सूर्य की और श्रीराधिका सहित अन्य गोपिकाएँ ग्रह-उपग्रहों की संज्ञा पाते हैं.
श्रीकृष्ण-भक्त महाकवि सूरदासजी के अनुसार "रास" एक गान्धर्व-विवाह है, जिसमें श्रीराधा व अन्य गोपिकाओं के साथ श्रीकृष्ण का आध्यात्मिक संयोग और सारूप्य प्राप्त होता है.
कतिपय विद्वानों ने रासलीला को शाश्वत नृत्य माना है. उनके अनुसार यह विश्वनृत्य है. आकाश में व्याप्त अनन्त शब्द ध्वनियाँ डमरू की ध्वनि हैं और नटराज शिव के पद की सम-विषम गति लास्य व ताण्डव-नृत्य की उत्पत्ति करती है. नृत्य का यही मधुर शाश्वत स्वरुप रासलीला द्वारा प्रकट होता है.
कुछ आध्यात्मिक मनीषियों की दृष्टि में यह शुद्ध आध्यात्मिक क्षेत्र की क्रीड़ा है. अध्यात्म पक्ष में श्रीकृष्ण परमात्मा और श्रीराधा तथा गोपियाँ मुक्त जीवों की प्रतीक हैं, जो परमात्मा के साथ क्रीड़ा करती हैं. वृन्दावन सहस्त्रदल कमल है, यहीं आत्मा-परमात्मा का मिलन होता है. लीलामय भगवान् श्रीकृष्ण की अपनी आह्लादिनी-शक्ति एवं प्रतिबिम्बस्वरूपा गोपिकाओं के संग दिव्यक्रीड़ा को रास कहा जाता है. जनसाधारण की भाषा में इसे भगवान के विलास की इच्छा कहकर सम्बोधित करते हैं. यह बात ज्ञातव्य है कि श्रीशुकदेवजी ने "रासपंचाध्यायी" के प्रथम श्लोक में ही मनुष्य को इसे भगवान् की दिव्य लीला समझते हुये पढ़ने व श्रवण करने का निर्देश दिया है. भगवान् की यह दिव्य लीला उनके दिव्य-धाम में निरंतर गतिमान रहती है. अपने प्रेमी साधकों के हितार्थ काल-खण्ड का निर्णय कर निज इच्छा से कभी-कभी वह इस मनोरम दृश्य की झाँकी पृथ्वी पर भी प्रस्तुत करते हैं, जिसे देख-सुन-गाकर और स्मरण-चिन्तन करके अधिकारी व्यक्ति आत्मा-परमात्मा के गूढ़तम रहस्य का ज्ञान एकत्र करते हुये अपने मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है.
"रासपंचाध्यायी" में वंशीध्वनि, गोपियों के अभिसार, भगवान् श्रीकृष्ण के संग उनका वार्तालाप, दिव्य रमण, श्रीराधाजी के साथ अंतर्ध्यान एवं पुनः प्राकट्य, गोपियों द्वारा प्रदान वसनासन पर विराजना, गोपियों के कूट प्रश्न का उत्तर, रास-नृत्य क्रीड़ा, जलकेलि व वनविहार का विस्तृत वर्णन किया गया है. "श्रीमदभागवत" सहित उसके "दशम स्कंध" और "रासपंचाध्यायी" पर अबतक अनेक भाष्य-टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं, जिनके लेखकों में जगदगुरु वल्लभाचार्य, श्रीश्रीधर स्वामी, श्रीजीव गोस्वामी आदि के नाम प्रमुख हैं. इन सभी लोगों ने बड़े विस्तार से रासलीला की महिमा बतायी है. किसी ने इसे "काम-वासना" पर विजय बतलाया है, तो किसी ने उस अनन्त शक्ति का दिव्य विहार. कुछ विद्वतजन इसकी आध्यात्मिक व्याख्या भी करते हैं, जिनके अनुसार श्रीकृष्ण आत्मा, श्रीराधा प्रमुख आत्माकार वृत्ति और गोपियाँ शेष आत्माभिमुख वृत्तियों का सगुण स्वरूप हैं व उनका धाराप्रवाह आत्मरमण ही "रास" है.
प्रदूषित वातावरण वाले आज के जिस भ्रमित समाज में हम सभी जीवन यापन कर रहे हैं, वहाँ मन से कलुष और व्यसनों को मिटाने हेतु रासलीला के वास्तविक अर्थ एवं उसके रहस्य को समझने की नितांत आवश्यकता है. सर्वप्रथम इस भ्रम को मिटाना होगा कि वर्तमान में "रास" नामक जिस शब्द को काम-क्रिया अथवा काम-तृप्ति का पर्यायवाची समझा जाता है, उसका वास्तविक अर्थ इन दोनों ही कर्मो से बिल्कुल विपरीत है. "रास" अर्थात जीव का ईश्वर के प्रति अनुराग. वह ईश्वर जो कहीं और नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही रहता है. आश्विन (शरद) पूर्णिमा की धवल चाँदनी में अपनी सम्पूर्णता को प्राप्त,जीवों के मन को नियंत्रित करने वाला चन्द्रमा उन्हें ईश्वरीय अनुराग प्रदान कर जीव और ब्रह्म के रहस्य से परिचित करा सके, इसी उद्देश्य से चन्द्र कला की सर्वाधिक प्रबलता वाली इस तिथी को रासलीला से सम्बंधित स्वीकार किया गया.
चिन्तन का विषय है कि यदि रासलीला का सम्बन्ध काम से होता तो आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले ऋषि-महर्षि उस दिव्योत्सव में सम्मिलित होने की कामना क्यों करते ? अब और अधिक भ्रमित न होते हुये शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र की इस आभा में आइये ध्यान करें श्रीराधाकृष्ण के उस पूज्य चरणारविंद का, जिसकी शरण अवश्य ही शान्ति व मुक्ति प्रदान करने वाली है.
जय राधेगोविंद.....!!!! जय-जय राधेगोविंद.....!!!!!!!
* लेखक : गौरीशंकर श्रीवास्तव " दिव्य "