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युद्ध में विजय के लिये श्रीराम की शक्ति-पूजा


श्रीदुर्गा आदिशक्ति जगज्जननि हैं. भारतीय वाङ्ग्मय में उनकी महिमा का गान देवता तथा महर्षिगण सदा से करते आये हैं. यद्यपि माता दुर्गा की उपासना अनादि काल से होती आयी है, तथापि जहाँ तक ग्रंथों का सम्बंध है, ऋग्वेद परिशिष्ट  में रात्रिसूक्त परिशिष्ट  के बारहवें 'ऋक' में 'दुर्गा' नाम का स्पष्ट उल्लेख मिलता है.
यथा-
तामाग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं
वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।। 
दुर्गा देवीं शरणमहं प्रपद्ये।
सुतरसि तरसे नम: ,
सुतरसि तपसे नम: ।। 

केन उपनिषद्  में हेमवती उमा का परिचय मिलता है. हिमकन्या उमा दुर्गा का ही नामान्तर मात्र है, क्योंकि ब्रम्ह की पराशक्ति विविध नामों से पुकारी जाती हैं. 'परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयचे।' (श्वेताश्वर उपनिषद् 6/8) इसके अनन्तर अनेक पुराणों तथा रामायण, महाभारत आदि में शक्ति-उपासना का वर्णन मिलता है.
  हिन्दुओं के आराध्य श्रीराम पूजित हैं महादेव शिव से, तो महादेव शिव को भी श्रीराम ने रामेश्वर रूप में स्थापित कर आराधा. इसप्रकार, रामेश्वर शब्द का अर्थ - 'राम हैं ईश्वर जिसके' अथवा 'ईश्वर हैं जो राम के',  दोनों ही रुपों में विद्वानों ने परिभाषित किया है. ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के द्वारा शिव की शक्ति पराम्बा माता भगवती की आराधना का भी उल्लेख रामायण-कालीन ग्रन्थों में सुन्दर रूप में मिलता है. 
  बात उस समय की है जब लंका में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र एवम् राक्षसराज लंकापति रावण के मध्य छिड़े युद्ध में एकदिन प्रभु की सेना को भारी पराजय का सामना करना पड़ा. ऐसे में, युद्ध के पश्चात रात्रि में रघुवर को चिन्तित अवस्था में देख सेनाधिनायक जाम्बवान ने श्रीहनुमानजी से कहा - "पवनपुत्र ! रावण के सेना की यह विजय कोई साधारण विजय नहीं है, उसे आदिशक्ति का वरदहस्त प्राप्त है. विजय की कामना से आश्विन मास के नवरात्रि में जो भी व्यक्ति भक्ति-भाव सहित माँ की आराधना करते हैं, माँ सदैव उनपर अपनी कृपा-दृष्टि बनाये रखती हैं. इसबात से परिचित रावण ने इनदिनों माता का आवाहन कर रखा है. अतः, प्रभु श्रीराम की विजय प्राप्ति हेतु अब आप ही कोई उपाय करें. "
  इतना सुनते ही पवनपुत्र ने एक तीव्र गर्जना की और वीरोचित वाणी में बोलते हुये कहने लगे - "जाम्बवानजी ! प्रभु आज्ञा दें तो इसी क्षण लंकेश का मृतक शरीर भूमि पर लिटा दूँ व उसके सिर पर अपने चरणचिन्ह अंकित करता हुआ माता सीता को आदरपूर्वक लेता आऊँ. प्रभु की कृपा और आप के आशिर्वाद के फलस्वरूप मेरी भुजाओं में इतना बल है कि इस युद्ध का परिणाम मैं अभी इसीपल हमारे पक्ष में कर सकता हूँ. परन्तु, यह स्वामि की मर्यादा के विरुद्ध होगा, यही सोचकर मेरी भुजायें शिथिल पड़ी हैं." ऐसा कहते हुये महावीर बजरंगबली लंकेश के राजमहल की ओर दृष्टि अडिग कर ज़ोर-ज़ोर से अट्टहास करने लगे और अपना विशाल रूप प्रकट किया.
  उधर कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर श्रीहनुमानजी का यह रूप देख जगज्जननि भवानी से कहते हैं कि पाप पर पुण्य की विजय हो सके इसके लिये आवश्यक है कि अब राक्षसराज रावण पर से उनकी छत्रछाया हटा ली जाये. किन्तु, भक्त की भक्ति के आगे विवश माता महादेव की बात मान सकने में असमर्थ थीं. दूसरी ओर, हनुमानजी का विशाल रूप और भी विशाल होता जा रहा था, जिसे देख अपने भक्त रावण की रक्षा के निमित्त माँ भवानी के नेत्र लाल हो उठे. अनिष्ट की आशंका को भांप भोलेनाथ ने एक युक्ति सोची. उन्होने भगवती से आग्रह किया कि वह हनुमानजी की माता अंजना का रूप धारण कर उन्हें सांत्वना देकर शान्त करने के लिये उनके पास जायें और उन्हें उस युक्ति से अवगत करायें जिसके द्वारा श्रीराम को रणभूमि मे विजय प्राप्त हो सके. स्वामि के आग्रह का सम्मान करते हुये माता जगदम्बा ने ऐसा ही किया. जिसके परिणामस्वरूप आश्विन शुक्ल के नवरात्रि में भगवान श्रीरामचन्द्र ने एकान्त्त स्थल पर माता दुर्गा की सविधि पूजा-अर्चना की. इस क्रम में प्रभु प्रतिदिन एक-एक पुष्प चढ़ाते जाते. इसप्रकार, आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से अष्टमि तिथि तक आठ दिन बीत गये.
  नवें दिन श्रीराम की भक्ति से प्रसन्न देवि माँ ने परीक्षा लेने के उद्देश्य से पूजा-थाल में रखे नौ पुष्पों में से एक पुष्प कम कर दिया. अनुष्ठान की पुर्णाहुति की बेला में पुष्पों की संख्या कम देख रघुवर चिन्तित हो उठे. बिना पुष्प पूजा अधूरी थी और पूजा के समय स्थान से उठना वर्जित. जबकि, बिना उठे पुष्प मिलता भी कहाँ से ? ऐसे में, दशरथनन्दन श्रीराम को उस क्षण का स्मरण आता है जब माता कौशल्या सहित सभी मातायें उन्हें 'पुण्डरीकाक्ष' अर्थात् 'कमल-नयन' कहकर सम्बोधित करती थीं. अपने नेत्रों को दिये गये कमल की संज्ञा के परिणामस्वरूप कौशल्यापुत्र पुष्प की कमी को पूरा करने के लिये माँ दुर्गा के चरणों में अपना दाहिना नेत्र चढाने हेतु ज्यों ही तत्पर होते हैं माता श्रीदुर्गा प्रकट हो जाती हैं व प्रसन्न मुद्रा में उन्हें विजय का आशिर्वाद प्रदान करती हैं - "श्रीराम ! मैं तुम्हारी भक्ति से अति-प्रसन्न हूँ. मेरा आशिर्वाद है कि कल रणभूमि में तुम्हारे बाणों से रावण का अन्त और तुम्हारा अपनी नित्य-संगिनी प्राणप्रिया सीता से पुनर्मिलन सुनिश्चित है. अन्याय पर न्याय का यह विजय-पर्व युग-युगान्त तक तुम्हारी जय-जयकार करवायेगा." ऐसा वचन कह माँ दुर्गा अन्तर्ध्यान हो गयीं.
  इसप्रकार, पूर्णब्रम्ह होते हुये भी भगवान् श्रीराम ने श्रीदुर्गा-पूजा कर उसकी महिमा सारे जग को बतायी. उन्होंने इस तथ्य को प्रत्यक्ष कर दिया कि शत्रु चाहे कितना भी बलशाली व पराक्रमी क्यों न हो भगवति अम्बिका की आराधना से विजय के मार्ग स्वत: ही प्रशस्त हो जाते हैं. आवश्यक है तो केवल भावना और आचरण की पवित्रता, जो कि श्रीराम एवम् रावण की पूजा-पद्धतियों को अलग-अलग श्रेणियों मे विभक्त करती है.

लेखक : गौरीशंकर श्रीवास्तव " दिव्य "
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