भारतीय संस्कृति के अनुसार शास्त्रों में आश्विन कृष्ण-पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक श्राद्ध करने का विधान बतलाया गया है . 15 दिनों का यह पूरा पक्ष 'श्राद्ध' अथवा 'पितृपक्ष' कहलाता है. अपने पितरों की आत्मा की शान्ति के निमित्त किया जाने वाला श्राद्ध मानव-जीवन का एक महत्वपूर्ण कर्म है.
भारत के पूर्व में स्थित शहर गया को पितृ-तीर्थ माना जाता है. कहते हैं यहाँ श्राद्ध करने पर मृत आत्माओं को मुक्ति की प्राप्ति होती है.
हमारे धार्मिक ग्रंथों में श्राद्धकर्म से सम्बंधित बहुत से आख्यान भरे पड़े हैं. भगवान श्रीराम जब रूद्रपद में आकर पिण्डदान करने के लिए उद्द्यत हुए, तब उनके स्वर्गवासी पिता महाराज दशरथ हाथ फैलाये उनके सम्मुख प्रकट हुए. शास्त्र की आज्ञानुसार, प्रभु ने उनके हाथ में पिण्डदान न देकर रूद्रपद पर ही उस पिण्ड को रखा. तब दशरथजी ने उनसे कहा - 'पुत्र ! तुमने मुझे तार दिया. रूद्रपद पर पिण्ड देने से मुझे परम शांति-प्रदायक रूद्र अर्थात शिवलोक की प्राप्ति हुयी है. तुम चिरकाल तक राज्य का शासन, अपनी प्रजा का पालन तथा विश्व-कीर्ति यज्ञों का अनुष्ठान करके अपने परमधाम विष्णुलोक को जाओगे.
एक अन्य वर्णन में द्वापर युग में गंगापुत्र भीष्म ने गया तीर्थ में विष्णुपद पर अपने पितरों का आवाहन करके विधिपूर्वक श्राद्ध किया था. जब वे पिण्डदान देने चले तब गयासिर में उनके पिता महाराज शान्तनु के दोनों हाथ सामने निकल आये. शास्त्र में हाथ पर पिण्डदान करना वर्जित है, ऐसा विचार कर भीष्मजी ने भूमि पर ही पिण्डदान किया. अपने पुत्र के इस व्यवहार से संतुष्ट होकर आत्मा-रूप महाराज शान्तनु ने उन्हें त्रिकाल दर्शी होने तथा इच्छा-मृत्यु के साथ ही साथ मृत्यु उपरान्त वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति का वरदान दिया और स्वयं जीवन-मरण के क्रम से मुक्त हुये.
नि:सन्देह आज के इस वैज्ञानिक युग मे भी हिन्दू व्यक्ति पितरों के प्रति श्राद्ध तथा अन्य कर्मों को विशेष श्रद्धा और आदरभाव से करते हैं. इतिहासकार आक़िल खान ने अपनी पुस्तक 'वाक़ेआत आलमगीरी' मे मुगल सम्राट शाहजहाँ के उस पत्र का उल्लेख किया है, जिसमें उन्होंने अपने पुत्र औरंगजेब द्वारा बन्दी बनाये जाने पर अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुये लिखा था - " ऐ पिसर ! तू अजब मुसलमानी, बा पिदरे ज़िंदा आब तरसानी। आफ़रीन बाद हिन्दवान सदबार, मैं देहंद पिदरे मुर्दा रावा दायम आब। " अर्थात् " हे पुत्र ! तू भी विचित्र मुसलमान है, जो अपने पिता को जल के लिये भी तरसा रहा है। शत-शत बार प्रशंसनीय हैं वे हिन्दू, जो अपने मृत पिता को भी जल देते हैं।"
महर्षि पराशर ने श्राद्ध का लक्षण बताते हुये कहा है कि देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल, यव और दर्भ (कुशा) आदि से मंत्र का उच्चारण करते हुये श्रद्धापूर्वक किया जाये, उसे 'श्राद्ध' कहते हैं.
श्रद्धा एवम् विश्वासपूर्वक किये गये श्राद्ध में पिण्डों पर गिरी हुयी पानी की नन्हीं-नन्हीं बूँदों से पशु-पक्षियों की योनि में पड़े पितरों का पोषण होता है जबकि, बाल्यावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होने वालों की आत्मायें सम्मार्जन के जल से ही तृप्त हो जाती हैं. श्राद्ध का महत्व तो यहाँ तक है कि श्राद्ध में भोजन करने के उपरान्त जो आचमन किया जाता है और पैर धोते हैं, बहुत से पित्रृ-गण उसी से सन्तुष्ट हो जाते हैं. बन्धु-बान्धवों के साथ अन्न-जल से किये गये श्राद्ध की तो बात ही क्या. केवल श्रद्धा-प्रेम से शाक द्वारा किये गये श्राद्ध से भी पित्रृ तृप्त होते हैं.
वस्तुत:, पूर्ण आस्था सहित भक्तिपूर्वक शास्त्रोक्त विधि से किया गया श्राद्ध हर प्रकार से कल्याणप्रद होता है. पित्रृ-पक्ष के साथ पितरों का विशेष सम्बन्ध रहता है, अत: शास्त्रों में इस समयावधि में श्राद्ध करने की विशेष महिमा बतलायी गयी है. पुनर्जन्म में विश्वास करनेवाली हिन्दू-संस्कृति के लिये श्राद्ध के महत्व को नकार पाना असम्भव है.
" श्रद्धासमन्वितैर्दत्तम् पित्रृभ्यो नाम गोत्रात:,
यदा हारस्तु ते जटार्ताधारात्वमेति तत्।। " (विष्णुपुराण-3/16/16)
अर्थात्, " श्राद्धवान पुरुषों के द्वारा नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके जो कुछ अन्न आदि दान दिया जाता है, वह पितरों को वे जैसे आहार योग्य होते हैं, वैसे ही परिवर्तित होकर मिल जाता है।" जैसे आहार योग्य होने का तात्पर्य यहाँ उस योनि से है, जिस योनि में उनकी आत्मा ने पुनर्जन्म पाया होगा. दूसरी योनि में चले जाने पर भी श्राद्ध का नि:सन्देह उपयोग है.
कर्मानुसार मनुष्य, पशु-पक्षी आदि स्थूल योनियों की प्राप्ति करने वाले पितरों को उनके निमित्त पूर्वजन्म की सन्तान द्वारा दान दिये गये पदार्थ वर्तमान जन्म में उपयोग किये जाने वाले पदार्थ स्वरूप परिवर्तित होकर मिलते हैं.
यह पूछा जा सकता है कि जीव की मुक्ति हो जाने पर श्राद्ध की क्या सार्थकता रह जायेगी ? परन्तु, पूर्वजों की आत्माओं की मुक्ति होने न होने के ज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति के लिये उचित यही हो सकता है कि वह इस श्राद्ध-कर्म को करता रहे. क्योंकि, मुक्ति प्राप्त आत्माओं के लिये किये गये श्राद्ध का सत्कर्म स्वयं श्राद्ध करनेवाले के संचित में लौट आयेगा ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है. इसप्रकार, यह मानव-जीवन का एक बहुत ही महत्वपूर्ण कर्म व सभी के लिये आवश्यक है।
लेखक : गौरीशंकर श्रीवास्तव " दिव्य "