शास्त्रों एवं पुराणों में रथयात्रा की बड़ी महिमा बतायी गयी है. आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से आरम्भ होने वाले उड़ीसा प्रान्त के इस नौ दिवसीय महोत्सव को "आड़प दर्शन" कहते हैं. ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति भगवान् के नामों का कीर्तन करता हुआ इस रथयात्रा में सम्मिलित होता है, उसे मृत्यु उपरान्त नर्क के दुःख नहीं भोगने पड़ते हैं, सीधे वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति होती है.
वस्तुतः जगन्नाथ धाम की महिमा का वर्णन कर पाना लेखनी के वश के बाहर है. प्रश्न उठता है कि इस पवित्र अलौकिक रथयात्रा में भगवान् श्रीकृष्ण के साथ उनकी अभिन्न शक्ति श्रीराधा अथवा श्रीरुक्मिणीजी न होकर भ्राता बलराम और बहन सुभद्रा को क्यों स्थान दिया जाता है ? इनकी मूर्तियाँ अपूर्ण क्यों हैं और क्यों होती है यह रथयात्रा ?
इस सम्बन्ध में पुराणों में कथा मिलती है- "एक समय द्वारिकाधाम में भगवान् श्रीकृष्ण रात्रि शयन करते हुये स्वप्नावस्था के दौरान अचानक से " हा राधे ! हा राधे !! " पुकारते हुये करुण-क्रंदन करने लगे. यह देख रुक्मिणी और सत्यभामा सहित उनकी सभी महारानियाँ अचम्भित हो उठीं. उन्होंने प्रभु के उठने पर अपनी जिज्ञासा शान्त करनी चाही, परन्तु श्रीकृष्ण द्वारा समुचित उत्तर न पाने की दशा में महारानियों ने श्रीबलरामजी की माता रोहिणीजी से राधा-कृष्ण के उस दिव्य प्रेम के सम्बन्ध में जानने की इच्छा जतायी, जिसे रुक्मिणी और सत्यभामा जैसी महारानियों का सच्चा प्रेम पाकर भी श्यामसुन्दर भूल नहीं सके.
महारानियों की इच्छा सुन माता रोहिणी ने कहा- " यद्यपि मैं ब्रज में घटित सम्पूर्ण लीलाओं से भिज्ञ हूँ परन्तु एक माता होने के नाते अपने पुत्र की गुप्त लीलाओं का उदघाटन करना कदापि शोभा नहीं देता. इसलिए हे पुत्रियों ! मुझे क्षमा करो." पर सत्यभामाजी के हठ के आगे माता रोहिणी को विवश होना पड़ा.माता द्वारा पुत्रवधुओं से पुत्र की गुप्त-लीलाओं का व्याख्यान कहीं पुत्र को लज्जित न कर दे,यह सोच सुभद्राजी को द्वार पर द्वारपालक बनाकर नियुक्त किया गया, ताकि कथा-वर्णन के दौरान कोई भी कक्ष में प्रवेश न कर सके, बलराम और श्रीकृष्ण भी नहीं. विधि का विधान, इधर कथा आरम्भ हुयी और उधर बलराम-श्रीकृष्ण माता रोहिणी से कुछ वार्ता करने हेतु निकल पड़े. अन्तःपुर पहुँचने पर सुभद्राजी ने माता की आज्ञा बताते हुये दोनों भ्राताओं को प्रवेश करने से रोका. माता की आज्ञा सुन दोनों भाई बाहर तो रुक गये परन्तु कक्ष के अन्दर चल रहा कथा प्रसंग उनके भी कर्णों तक पहुँचा. पूर्वकाल में घटित घटनाओं के व्याख्यान सुन श्रीकृष्णचन्द्र राधारानी का स्मरण करते हुये स्वसंवेद अवस्था में लीन हो गये. वहीं, दोनों की विरह-अवस्थाओं ने बलरामजी को इतना मर्माहत किया कि उनकी स्थिति भी अचेतावस्था तक जा पहुँची. राधा-कृष्ण के इस परम दिव्य प्रेम-वैचित्र्यावस्था का वर्णन सुन देवी सुभद्रा का भी अपने ह्रदय पर कोई अंकुश न रह सका और वह भी अपने दोनों भ्राताओं के सदृश निश्चल, निर्वाक, स्पंदन-रहित अवस्था को प्राप्त हो गयीं.
इसी समय देवर्षि नारद का आगमन हुआ, वे दोनों भ्राताओं और बहन की ऐसी अवस्था देख हतप्रभ रह गये. अचेतावस्था से उबरने पर तीनो ने देवर्षि से क्षमा माँगी कि अपने महाभाव में लीन होने के कारण वे उनका आगमन न जान सके और अभिनन्दन करने से वंचित रह गये. इसपर देवर्षि नारद ने इस क्षण को स्वयं का सौभाग्य बताते हुये भगवान् से प्रार्थना की कि,जिसप्रकार आज मैं आप तीनो का एक साथ दर्शन कर धन्य हुआ मेरी अभिलाषा है कि ठीक उसीप्रकार इस भुवनमण्डल के समस्त जनसाधारण इन मूर्तियों के दर्शन कर अपने जीवन को धन्य बनायें.प्रभु ने देवर्षि की अभिलाषा को सहर्ष स्वीकार करते हुये "तथास्तु !" कहा.
युग बदले और विधि ने एक नवीन योजना बनायी. कलियुग का आरम्भ हुये अभी कुछ ही वर्ष व्यतीत हुये थे. श्रीजगन्नाथजी के दर्शन की आकांक्षा रखने वाले मालवनरेश इन्द्रद्युम्न सपरिवार नीलांचल के समीप निवास करते हुये भगवद साधना में लीन रहा करते थे, तभी एक दिन समुद्र में एक बहुत बड़ा काष्ठ बहते-बहते तट पर आ लगा. राजा ने उसे निकलवाकर उससे जगन्नाथ-मूर्ति का निर्माण करवाने का निश्चय किया.
इसी समय एक वृद्ध काष्ठकार के रूप में स्वयं श्रीविश्वकर्मा वहाँ उपस्थित हुये और उन्होंने अपने गुणों से राजा को परिचित करवाते हुये मूर्ति निर्माण की ज़िम्मेदारी सम्भाली. किन्तु,इस शर्त के साथ कि "जबतक मैं मूर्ति-निर्माण के कार्य में संलग्न रहूँ कृपया कोई भी मेरे कक्ष का द्वार न खोले और न ही मुझसे किसी प्रकार का सम्पर्क करने की चेष्टा करे.यदि ऐसा किया गया तो मैं मूर्तियों के निर्माण को अधूरा ही छोड़कर चला जाऊँगा."
राजा इन्द्रद्युम्न ने शर्त स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं जतायी और मूर्ति-निर्माण आरम्भ हुआ. वर्तमान के गुंडीचा मंदिर के स्थान पर एक भवन में विश्वकर्माजी को यह कार्य करते हुये बिना अन्न-जल ग्रहण किये कई दिन बीत गये परन्तु भवन का द्वार जस का तस बंद ही रहा. इस पर महारानी को शंका हुयी कि इतने दिनों में कहीं बिना कुछ खाए-पीये उस वृद्ध पुरुष के प्राण-पखेरू उड़ तो नहीं गये. महारानी की शंका पर सहमती जताते हुये राजा इन्द्रद्युम्न ने शर्त को तोड़ते हुये भवन के द्वार को खुलवा दिया.परिणाम स्वरुप काष्ठकार तो अदृश्य हो गया परन्तु श्रीजगन्नाथजी, सुभद्राजी और बलरामजी की अपूर्ण काष्ठ प्रतिमाएँ मिलीं. ग्लानी से भर उठे राजा सोच में पड़ गये कि इन अपूर्ण मूर्तियों का क्या किया जाये ? तभी आकाशवाणी हुयी कि "स्वयं विश्वकर्मा द्वारा निर्मित इन प्रतिमाओं को उनके इसी स्वरुप के साथ स्थापित करो. कलि-काल में इनकी आराधना भक्तों को वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति कराने का हेतु बनेंगी." राजा इन्द्रद्युम्न ने ऐसा ही किया और वह स्थान भविष्य में गुंडीचा मंदिर के नाम से विख्यात हुआ.
ऐसी मान्यता है कि द्वारिकाधाम में एक बार सुभद्राजी ने नगर भ्रमण करना चाहा.स्वास्थ लाभ ले रहे भगवान् द्वारिकाधीश ने इस अवसर को भ्राता बलराम की सलाह पर स्वास्थ हेतु और भी उपयुक्त माना. अतः निकल पड़े तीनो भाई-बहन अलग-अलग रथों में सवार होकर नगर-भ्रमण करने के लिए. इसी घटना को स्मारक मानते हुये प्रति वर्ष उड़ीसा के पुरी नगर में रथयात्रा उत्सव की परिकल्पना रची गयी और यह भक्ति का एक नया आयाम बना.
इस भौतिकतावाद के युग में घोर संघर्ष में डूबते-उतराते मानव के लिए, रथयात्रा का पावन महोत्सव परम कल्याणमय एवं मोक्षदायक है,इसमें कोई संदेह नहीं.विविध धर्म-सम्प्रदाय के लोगों का एकजुट होकर इस महान आयोजन को सफल बनाना इस बात का संकेत करता है कि धर्म और मज़हब की दीवारें राजनीतिक गलियारों में चाहे जितना दम भर लें, "वसुधैव कुटुम्बकम" की परिभाषा हरगिज़ व्यर्थ नहीं है.
* लेखक : गौरीशंकर श्रीवास्तव " दिव्य "